जाति-व्यवस्था, पितृ सत्ता, धार्मिक अंधविश्वास, पाखंड, लैंगिक असमानता, छुआछूत, सामाजिक भेदभाव पर पेरियार के तार्किक विचार
प्रमोद रंजन द्वारा संपादित पुस्तक ‘जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता’ भारत का सुकरात कहे जाने वाले ई. वी. रामास्वामी पेरियार के इस विषय पर केंद्रित लेखों और भाषणों का संग्रह है।
इस पुस्तक में हम पेरियार के बहुत ही तार्किक विचारों को पाते हैं। मसलन, पेरियार का कहना है कि “मैं विवाह या शादी जैसे शब्दों से सहमत नहीं हूं। मैं इसे केवल जीवन में साहचर्य के लिए एक अनुबंध मानता हूं।” इसी तरह वे कहते हैं कि “जो आदमी ईश्वर और धर्म में विश्वास रखता है, वह आजादी हासिल करने की कभी उम्मीद नहीं कर सकता।”
इसके अतिरिक्त इस किताब की महत्ता इस बात में भी निहित इसमें विभिन्न विद्वानों के ऐसे लेख भी संकलित हैं, जो पेरियार के विचारों की पृष्ठभूमि को भी उजागर करते हैं। पुस्तक में पेरियार के जीवन में हुई सभी प्रमुख घटनओं को भी तारीख के साथ दिया गया है, जिससे हमें पेरियार की जीवनी को भी समझने में मदद मिलती है। साथ यह हमें तत्कालीन भारत विशेषकर तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य की एक जीवंत झलक भी दिखलता है।
यह पुस्तक दो हिस्सों में विभाजित है। पुस्तक के पहले भाग में भारत में जाति-प्रथा और उसके विनाश के उपाय पर पेरियार के विचार संकलित हैं।
पुस्तक में पेरियार का एक लेख ‘बुद्धिवाद: पाखंड व अंधविश्वास से मुक्ति का मार्ग’ शीर्षक से है। इसमें पेरियार ने पाखंड व अंधविश्वास के स्थान पर तर्क, बुद्धि, ज्ञान तथा विवेक को अपनाने का सुझाव दिया है। पेरियार ने विवेक को मार्गदर्शक कहते हैं। पेरियार कहते हैं कि “तर्कवाद से पैदा हुआ ज्ञान ही असली ज्ञान है।” वे सवाल उठाते हैं कि “क्या सहज किताबी ज्ञान ज्ञान हो सकता है? क्या काेई रट्टा लगाकर प्रतिभाशाली हो सकता है? ऐसे क्यों है कि उच्चतम बौद्धिक प्रतिभा वाले शिक्षित व्यक्ति और वे भी, जो विशेष रूप से विज्ञान में डिग्रीधारी हैं; एक पत्थर को देवता मान कर उसके आगे दंडवत होते हैं। क्या उनके द्वारा ज्ञान पढ़े गए विज्ञान और गोबर और गोमूत्र के मिश्रण अभिषेक करने के बीच कोई संबंध है?”
उनका एक विचरोत्तेजक लेख ‘महिलाओं के अधिकार’ है । इसमें पेरियार ने भारतीय महिलाओं की स्थिति पर चिंतन करते हुए उनके अधिकारों पर विचार किया है। वे तंज करते हुए कहते हैं कि कि जो अनुशासन, नियम-कानून महिलाओं के लिए हैं, वह पुरुषों पर भी क्यों नहीं लागू होते। इसमें वे स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि “महिलाओं! साहसी बनिए। यदि आप अपने आचार--विचार में बदलाव लाती हैं, तो आपके पति और अन्य पुरुषों को भी बदलने में आसानी होगी। ..अपनी स्थिति को यूं मजबूत बनाइए कि भविष्य में इसकी बजाए कि आपको अमुक की व्यक्ति की पत्नी के रूप में पहचाना जाए, आपके पति को अमुक महिला के पति के तौर पर चिन्हित किया जाए।”
इसी विषय पर एक और लेख ‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के साथी’ भी इसमें संकलित है। इस लेख में पेरियार ई. वी. रामास्वामी ने प्रेम और विवाह संबंधित विचार प्रस्तुत किया है। इस लेख में वे कहते हैं कि “पत्नी को इस सोच के साथ व्यहार करना चाहिए कि वह अपनी पति की दासी या रसोइया नहीं है।.. दंपत्तियों को एक दूसरे के साथ मैत्रीभाव से व्यवहार करना चाहिए।”
पुस्तक में एक लेख ‘जाति-व्यवस्था’ है । इसमें पेरियार की जाति विरोधी विचारधारा सामने आती है। जाति व्यवस्था से वे किसी भी प्रकार समझौता करने के विरोधी हैं तथा मानते हैं कि जाति व्यवस्था में दुर्गणों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
इसी मुद्दे पर उनका एक और लेख ‘जाति के बारे में’ है। इसमें भारत में जातियां में जातियां कैसे खतम् होंगी, इस संबंध में उन्होंने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। पुस्तक में एक अन्य लेख भी है, जिसका शीर्षक है ‘जाति व्यवस्था की कार्य पद्धति’। इसमें उन्होंने जाति व्यवस्था के कार्य प्रणाली पर विचार किया है।
पुस्तक में संकलित ‘ब्राह्मणों को आरक्षण से घृणा क्यों?’ शीर्षक लेख भी बहुत विचारोत्तेजक है और उच्च जातियों की मानसिकता को समझनें में मदद पहुंचाता है। पुस्तक में पेरियार एक जगह स्वराज की अवधारणा पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि “हम जोर-जोर से स्वराज की बात कर रहे है। क्या यह स्वराज तमिलों के लिए है? या, उत्तर भारतीयों के लतिए है? क्या यह आपके लिए है? या पूंजीवादियों के लिए है? क्या यह मजदूरों के लिए है, या उनका खून चूसने वालों के लिए है?
इस लेख में उनका विचार है कि भारत में जब तक जातियां रहेगी, जातिगत भेदभाव रहेगा, तब तक आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए। इस विषय पर पुस्तक के अन्य लेख ‘जाति और चरित्र’ तथा ‘जाति व्यवस्था का क्षय हो’ है। इसमें पेरियार ने जाति व्यवस्था को नष्ट करने का समर्थन किया है, वे कहते हैं कि जातियों से किसी का भला नहीं होता है, उससे तो समाज में हीन भावना पैदा होती है।
पुस्तक का दूसरा हिस्सा परिशिष्ट है। इसमें पितृसत्ता के नाश पर पेरियार के चिंतन-विचार के साथ-साथ उनके जीवन और संघर्ष पर कुछ विद्वानों का लेख है। परिशिष्ट में शामिल ललिता धारा का लेख ‘महिलाएं उन्हें कहती थीं पेरियार (महान)’ और टी. थमराईकन्नन के लेख ‘सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों में पेरियार का स्थान’ में पेरियार का सामाजिक परिवर्तनकारी और समाज सुधारवादी रूप उभरकर सामने आया है। इन लेखों में पेरियार के पितृसत्ता के ध्वंश, स्त्री-पुरुष संबंध, विवाह, विधवा विवाह आदि सुधारवादी सुझाव तथा विचार की तर्कसंगत व्याख्या की गई है।
पुस्तक के संपादक प्रमोद रंजन ने ‘हिंदी पट्टी में पेरियार’ शीर्षक से संपादकीय लिखा है, इसमें उत्तर भारत में पेरियार के चिंतन-विचार के प्रचार-प्रसार में ‘ललई सिंह’ की भूमिका पर प्रकाश डाला है। उन्होंने इसमें इस किताब के संपादन से संबंधित अपने निजी अनुभव भी वर्णित किए हैं। प्रमोद रंजन हिंदी समाज-साहित्य को देखने-समझने की परंपरागत नजरिया को चुनौती देने वाले लोगों में से एक हैं। उन्होंने अपने वैचारिक यात्रा पत्रकारिता से शुरू की थी तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। उनके संपादन में संपादित किताब ‘बहुजन साहित्य की अवधारणा’ बहुजन साहित्य की अवधारणा को सैद्धांतिक आधार प्रदान किया है तथा ‘महिषासुर एक जननायक’ ने वैकल्पिक सांस्कृतिक दृष्टि को एक व्यापक विमर्श का विषय बनाया है। उन्होंने पेरियार ई. वी. रामास्वामी की तीन किताबें की सीरिज संपादित की है इन किताबों में ‘जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता’ के अतिरिक्त ‘धर्म और विश्व दृष्टि’ तथा ‘सच्ची रामायण’ भी है।
यहां समीक्षित पुस्तक ‘जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता’ पेरियार के सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित विचारों पर आधारित है। भारत में वर्ण व्यवस्था से उपजी जाति व्यवस्था और पितृसत्ता सामाजिक विकृतियों में से प्रमुख हैं। पुस्तक में इन पर पेरियार ई.वी.रामास्वामी के चिंतन, मनन, सुझाव और विचार बड़े ही वैज्ञानिक और तार्किकता के साथ प्रस्तुत हैं। जाति-व्यवस्था और पितृ सत्ता के अलावा धार्मिक अंधविश्वास, पाखंड, लैंगिक असमानता, छुआछूत, सामाजिक भेदभाव जैसे सामाजिक समस्याओं पर पेरियार के तार्किक विचार इसमें शामिल हैं तथा इन सामाजिक समस्याओं से मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने बहुत ही सटीकता के साथ दिखाया है।
अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यह पुस्तक अपने उद्देश्य पर खरी उतरती है।
पुस्तक में पेरियार के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन, सामाजिक व राजनीतिक विचार आदि लेखों के माध्यम से प्रस्तुत हुए हैं जो हिंदी में अन्यत्र सहजता से नहीं मिलते हैं। पेरियार का अधिकांश लेखन तमिल में है, जिनमें से अधिकांश का अनुवाद अंग्रेजी में हो चुका है। इस पुस्तक के लिए चयनित लेखों का अनुवाद कँवल भारती, पूजा सिंह, कँवल देवीना अक्षयवर आदि ने किया है। सारे अनुवाद बहुत ही प्रवाहपूर्ण हैं।
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पुस्तक: जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता: पेरियार ई. वी. रामास्वामी
संपादक: प्रमोद रंजन
पहला संस्करण: 2020
मूल्य: ₹ 199
पृष्ठ संख्या: 150
प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
दिल्ली-110051
अमेजन पर यहां उपलब्ध है
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जनार्दन रविदास असम यूनिवर्सिटी, दीफू कैंपस के चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु पर शोध कर रहे हैं
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