विगत 18 दिसम्बर को ‘टीएन गोदावर्मन थिरुमलपाद बनाम भारत संघ’ (याचिका क्रमांक 202/1995) मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बीआर गवई, एसव्हीएन भट्टी और संदीप मेहता की खंडपीठ ने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसला दिया है। हालांकि यह निर्णय राजस्थान के सामुदाय संरक्षित ‘पवित्र उपवनों’ से संबंधित है, लेकिन इसका दूरगामी महत्व पूरे भारत के ‘पवित्र उपवनों’ और ऐसे उपवनों में वन अधिकारों की मान्यता को लेकर है। फैसले के पैरा 58 में दिए गए निर्देश विशेष रूप से ‘वन अधिकार अधिनियम 2006’ से संबंधित हैं। यह अधिनियम राज्य के कानूनों, स्वायत्त जिला या क्षेत्रीय परिषद के कानूनों और उनके पारंपरिक या रुढ़िवादी कानूनों के तहत आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है।
यह प्रावधान भारत में आदिवासी समुदायों की विविध कानूनी और सांस्कृतिक प्रथाओं के लिए सम्मान सुनिश्चित करता है। राजस्थान सरकार को उन पारंपरिक समुदायों की पहचान करनी चाहिए जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से ‘पवित्र उपवनों’ की रक्षा की है और उन क्षेत्रों को ‘वन अधिकार अधिनियम’ के तहत 'सामुदायिक वन संसाधन' के रूप में नामित करना चाहिए। इन समुदायों ने संरक्षण के प्रति मजबूत सांस्कृतिक और पारिस्थितिक प्रतिबद्धता दिखाई है और उनकी संरक्षक के रूप में भूमिका को औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त होनी चाहिए।
इन पवित्र उपवनों की पारिस्थिति की और सांस्कृतिक महत्व को देखते हुए उन्हें ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972’ के अन्तर्गत शामिल करने की सिफारिश की गई है तथा इनके संरक्षण पर जोर दिया गया है। ‘वन अधिकार अधिनियम’ के अनुसार ग्रामसभाओं और स्थानीय संस्थानों को वन्यजीव, जैव-विविधता और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा जारी रखने के लिए सशक्त बनाना चाहिए। उन्हें उपयोग करने की अनुमति देने और हानिकारक गतिविधियों को रोकने के लिए अधिकार प्रदान करने से उनकी विरासत को संरक्षित किया जा सकेगा और भविष्य की पीढ़ियों के लिए सतत संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा।
‘वन अधिकार अधिनियम 2006’ कहता है कि उन क्षेत्रों में जहां इस अधिनियम के अधीन वनाधिकारों के धारक रहते हैं, ग्रामसभा और ग्राम स्तर की संस्थाएं निम्नलिखित के लिए सक्षम हैं:- (क) वन्यजीव, वन और जैव-विविधता का संरक्षण, (ख) यह सुनिश्चित करना कि लगा हुआ जलागम क्षेत्र, जलस्रोत और अन्य संवदेनशील क्षेत्र पर्याप्त रूप से संरक्षित हैं, (ग) यह सुनिश्चित करना कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों का निवास संरक्षित है, (घ) यह सुनिश्चित करना कि सामुदायिक वन संसाधनों तक पहुंच को विनियमित करने और ऐसे किसी क्रियाकलाप को रोकने के लिए जो वन्यजीव, वन और जैव-विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, ग्रामसभा में लिए गए निर्णयों का पालन किया जाए।
न्यायालय की कार्यवाही में ‘वन अधिकार अधिनियम’ के प्रावधानों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि सामुदायिक वन संसाधनों पर समुदाय का अधिकार उन्हें पारंपरिक सांस्कृतिक पवित्र वनों की सुरक्षा के लिए कानूनी तंत्र प्रदान करता है। अदालती निर्देश में ‘वन अधिकार कानून’ के प्रावधानों का उल्लेख नहीं किया गया है, परन्तु राज्य सरकार तथा ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ को मिलकर सामुदायिक संरक्षित वनस्पतियों के सर्वेक्षण और मानचित्रण के लिए तंत्र स्थापित करने और राजस्थान उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ को राज्य वन विभाग के सहयोग से एक समिति का गठन करने के निर्देश दिए गए हैं।
अदालत के निर्देशों के मुताबिक ‘पवित्र वनों’ की सुरक्षा के लिए कानूनी तंत्र प्रदान करने के लिए ‘वन अधिकार कानून’ के प्रावधानों का उपयोग किया जाए। इसके अतिरिक्त ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ को देश भर में पवित्र उपवनों के संचालन एवं प्रबंधन के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति बनाने की सिफारिश की गई है। नीति के एक हिस्से के रूप में प्रत्येक राज्य के ‘पवित्र उपवनों’ की एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण की योजना विकसित करने के लिए कहा गया है जो बहुत ही समस्याग्रस्त स्थिति में हैं।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों में निष्कर्ष के रूप में उल्लेख किया गया है कि संबंधित अधिकारियों को इस निर्णय के निर्देशों का अक्षरशः पालन करना होगा। यह फैसला ‘वन अधिकार कानून’ की प्रस्तावना में उल्लिखित वन आश्रित समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के प्रयास के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस अधिनियम में समुदायों को वन भूमि पर कानूनी अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों के जरिये समुदायों को वन संसाधनों के उपयोग, प्रबंधन और संरक्षण का अधिकार मिला है। यह ‘पवित्र उपवन’ पर्यावरणीय लाभ भी देते हैं, जैसे कि जलवायु को नियंत्रित करना, जल की गुणवत्ता बनाए रखना और वन्य जीवों के लिए आवास देना।
सामुदायिक ‘पवित्र उपवन’ स्थानीय समुदायों द्वारा विकसित जीवन का तरीका है, जो सांस्कृतिक और अध्यात्मिक दृष्टिकोण पर आधारित है। वे अपने क्षेत्रों का प्रबंधन इस तरह करते हैं कि समाजिक, पर्यावरणीय, सांस्कृतिक और यहां तक कि आर्थिक लाभों के साथ-साथ प्रकृति का संरक्षण और सतत् उपयोग सुनिश्चित हो। सामुदायिक वन प्रबंधन स्थानीय समुदायों द्वारा प्रबंधित क्षेत्र विशिष्ट के साथ पैतृक बंधन रखते हैं। यह पैतृक बंधन अपने आप में कई तत्वों को समाहित करता है जो स्व-शासन को सुविधाजनक बनाता है। जलवायु और जैव-विविधता के इस संकट के समय में यह फैसला मील का पत्थर साबित होगा।
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राजकुमार सिन्हा ‘बरगी बांध विस्थापित संघ’ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं
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