खुले में शौच से मुक्त भारत में भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर में 34 दलित परिवार बिना शौचालय के
1959 में भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर को बनाने के लिए दो गांव उजाड़े गए। किसानों को सिर्फ खेतों में खड़ी फसल का मामूली सा मुआवजा दे दिया गया। इस राष्ट्रीय महत्व के संस्थान को बनाने के लिए जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया गया। उजाड़े गए हरेक परिवार को वायदा किया गया कि परिवार के एक सदस्य को संस्थान में नौकरी मिलेगी। बस यह नहीं बताया गया कि भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान में नौकरी करने कि लिए विशेष कौशल वाले लोग चाहिए। हां, कुछ लोगों को निचले स्तर पर मेहनत-मजदूरी वाले कामों के लिए रख लिया गया। इसी समय कुछ घोबी परिवारों को भी बाहर से लाकर बसाया गया जो छात्रों, कर्मचारियों व प्रोफेसरों के कपड़े धो सकें। इनमें से एक व्यक्ति को जिसे रु. 35 प्रति माह पर संस्थान में नौकरी का मौका मिल रहा था, को समझा बुझा कर नौकरी छुड़वा कर धोबी का काम करने के लिए तैयार किया गया।
भारत सरकार व इंग्लैण्ड की सरकार द्वारा प्रायोजित भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर की एक पहल है ’इन्वेण्ट’ जिसके तहत 10 लाख आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की मदद की जानी है। जिन क्षेत्रों में मदद होनी है उसमें स्वच्छता एक है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बाकी सभी उच्च शिक्षण संस्थानों की तरह भा.प्रौ.सं., कानपुर को भी अपने इलाके में पांच गांव गोद लेने थे जिन्हें खुले में शौच से मुक्त कराना था। हाल ही में भा.प्रौ.सं. कानपुर व समावेशी विकास के लिए आई.सी.आई.सी.आई. नामक संस्था ने मिलकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक परियोजना शुरू की है। कहने की जरूरत नहीं हैं कि स्वास्थ्य एवं स्वच्छता में अंतरंग सम्बंध है। जिने देशों ने शौचालयों की उपलब्धता पर ध्यान दिया है वहां के स्वास्थ्य मानक अन्य देशों से बेहतर हैं। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच वर्ष कार्यक्रम चलने के बाद 2 अक्टूबर, 2019 को ही भारत को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया था। लेकिन किसने कल्पना की होगी कि भा.प्रौ.सं., कानपुर के परिसर में अनुसूचित जाति के 34 धोबी परिवार हैं जिन्हें पिछले 65 वर्षों से शौचालयों से वंचित रखा गया है और आज भी इनके पास शौचालय की व्यवस्था नहीं है? यह चिराग तले अंधेरे जैसी बात है। क्या भा.प्रौ.सं. को इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए कि उसने 34 दलित परिवारों को सम्मानजनक जिंदगी से वंचित रखा है? बल्कि, भा.प्रौ.सं., कानपुर के खिलाफ तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, के तहत जानबूझ कर दलितों के साथ भेदभाव करने के लिए मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए।
अब भा.प्रौ.सं., कानपुर इन 34 परिवारों को परिसर से निकालना चाहता है क्योंकि उसने छात्रावासों में कपड़ा धोने वाली मशानें लगवा दी हैं। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वाराज में इसी मौलिक बात को उठाया है कि मशीनें लोगों के रोजगार के लिए खतरा बनेंगी। इस सम्भावना का अंदाजा होते हुए कि भा.प्रौ.सं. के इस कदम का कुछ लोग विरोध करेंगे उसने जाना माना हथकण्डा अपनाया जिसमें पीड़ित को ही दोषी ठहराने का प्रयास किया जाता है। धोबी लोगों पर इस बात का ओराप लगाया गया कि वे बाहर का भी काम लेने लगे हैं। क्या भा.प्रौ.सं. की यह नीति नहीं कि उसके प्रोफेसरों को बाहर की निजी कम्पनियों के साथ मिलकर प्रायोजित शोध करने के लिए प्रोत्साहित कया जाता है ताकि संस्थान के पास और पैसा आ सके? यदि छात्र या शोधकर्ता नई कम्पनियां शुरू करेंगे तो उनकी प्रशंसा की जाएगी। भा.प्रौ.सं. में उद्यमिता को एक अच्छा गुण माना जाता है। किंतु भा.प्रौ.सं., कानपुर अपने दलित परिवारों की आय को सीमित रखना चाहता है। धोबी परिवारों पर यह भी आरोप लगाया गया है कि वे नशीली दवाओं की आपूर्ति की आपराधिक गतिविधियों में भी लिप्त हैं। अब, भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों का एक सर्वेक्षण करा लिया जाए तो पता चल जाएगा कि परिसरों पर नशीली दवाओं के दुरुपयोग की समस्या परिसर पर स्थित धोबी परिवारों से स्वतंत्र है। यह शर्म की बात है कि भा.प्रौ.सं., कानपुर जिस समस्या का खुद समाधान नहीं ढूंढ़ पर रहा है उसके लिए धोबी परिवारों बलि का बकरा बनाना चाहता है।
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लेेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के महासचिव हैं
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