मेरे एक प्रिय कवि हैं श्रीप्रकाश शुक्ल। कोरोना काल में भी वे निरंतर सक्रिय रहे। हालाँकि उस दौर लिखी गयी कविताओं को उन्होंने 'कोरोजीवी' कविता कहकर नाम देने की भी कोशिश की लेकिन इतने तत्कालिक लेखन के नामकरण का औचित्य नहीं होता। इसलिए कि उस संक्षिप्त कालखंड की जो भी विशेषता हो, वह साहित्य के स्वरूप में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं लाता।
यदि नयी कविता से साठोत्तरी दौर की कविताओं की तुलना करें अथवा साठोत्तरी दौर से आठवें दशक की तुलना करें तो अंतर बहुत स्पष्ट लक्षित होंगे। लेकिन 2018 की रचना और 2021 की रचना में ऐसा अंतर देखना सम्भव नहीं है।
कोरोजीवी नामकरण चाहे महत्वपूर्ण न हो लेकिन नवें दशक के कवियों में जिन्होंने अपेक्षाकृत विस्तृत प्रयोगभूमि पर लेखन किया है उनमें श्रीप्रकाश जी प्रमुख हैं। वे एक सिरे पर लोकसंस्कृति से जुड़े हैं और केदारनाथ सिंह की परंपरा में गिने जाते हैं, दूसरी तरफ उत्तर सोवियत दौर की चुनौतियों को नए ढंग से देखने की कोशिश में अपने पिछले अभिव्यक्ति साँचों से बाहर भी निकलते हैं। उनके अनेक सहवर्ती कवि इस प्रयत्न में बहुत सक्षम नहीं दिखते।
लोग फिर कहेंगे कि नामावली गिना रहा हूँ लेकिन कहना पड़ता है कि बद्री नारायण, लीलाधर मंडलोई, केशव तिवारी, एकांत श्रीवास्तव, मदन कश्यप आदि जिन कवियों ने उत्तर सोवियत दौर की चुनौतियों को रचनात्मक स्तर पर उठाया, उनमें श्रीप्रकाश शुक्ल अवश्य मालूम होते हैं।
नामावली में एक समस्या होती है कि कुछ नाम शामिल होते हैं और कुछ ज़रूरी नाम छूट जाते हैं। दो दिन पहले यों ही एक टिप्पणी की तो उसमें श्रीप्रकाश का ही नाम नहीं था। यह सब योजना इसलिए बना रहा हूँ कि जीवन के डेढ़ दशक व्यर्थ हो गए हैं। उसपर पिछले आठ साल स्ट्रोक के बाद जीवन-मृत्यु के संघर्ष में बर्बाद हो गए। अब फिर एक "हाई रिस्क" ऑपरेशन में जाना है। लेकिन संकल्प ले रहा हूँ कि इस संकट से निकलकर शेष जीवन अब किसी दबाव में व्यर्थ नहीं होने देना है।
मैंने 1981 में आलोचना लिखना शुरू किया। मेरी सबसे बड़ी सीमा यह रही कि कविता की आलोचना का क्षेत्र चुना। शोधकार्य प्रगतिशील कविता पर था और उसीने कविता पर काम का रास्ता बना दिया। अपने साथ के कवियों का आकलन करने में साहस के साथ चला, कभी-कभी दुस्साहस के साथ भी। राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश मेरे अधिक प्रिय कवि थे। आज उन्हें पूरा साहित्य जगत स्वीकार करता है।
इसका यह मतलब नहीं कि और अच्छे कवि नहीं थे। विनोद दास जैसे कवि पूरे दौर में 'व्याकरण से बाहर' रहकर 'खिलाफ हवा से गुजरते हुए' सक्रिय रहे। सच पूछिए तो एक तरफ राजनीतिक गतिविधियों में सक्रियता, दूसरी तरफ साहित्यिक आलोचना; एक तरफ जनवादी लेखक संघ का संगठन कार्य, दूसरी तरफ इतिहास-अर्थशास्त्र-साहित्य की बहसों में हिस्सेदारी--कुल मिलाकर लेखन इतना अव्यवस्थित रहा कि अपने साथ के कवियों से भी न्याय नहीं कर पाया। शैलेंद्र चौहान अच्छे मित्र और कवि हैं लेकिन उनपर नहीं लिख सका।
फिर भी, आठवें दशक की कविता की पहचान बनाने में एक प्रयत्न तो रहा। आलोचक में रुचि के आग्रह भी होते हैं। वे भी हैं। विरासत का एक विवेक भी होता है और उसके लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा। मैं छायावादी और प्रगतिशील कवियों को अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। प्रयोगवादी और अस्तित्ववादी कवियों को अधिक पसंद नहीं करता। इसके कारणों पर लिखता रहा हूँ, बाकी लिखकर ही जीवनलीला समाप्त करूँगा। आप जितना ठीक समझें, मानें, वरना छोड़ दें।
जिस बात की ज़रूरत है वह है नवें दशक की विशेषता और विलक्षणता को रेखांकित करने की। हमें तो अपने अग्रज और सहवर्ती आलोचकों से लगातार बहस करने की सुविधा थी। हमारी आलोचना इस बहस-मुबाहसे से गुजरकर बनी या बिगड़ी है। लेकिन नवें दशक की चुनौतियाँ जितनी गहरी थीं, उसपर लिखने वाले आलोचकों के पास इस तरह के बहस की सुविधा लगभग नहीं थी। ध्यान दीजिए तो नवें दशक की कविता पर ले-देकर अविनाश मिश्र ने एक किताब लिखी है। वह एकमेव होने से महत्वपूर्ण भी है और समस्याग्रस्त भी। अनेक विचारों और मान्यताओं से टकराकर ही कोई स्थापना मूल्यवान बनती है। अकेली होने से उस पुस्तक की यह सीमा भी है कि अविनाश ने अपनी रुचि के अनुरूप कवियों का चयन किया है। बाकी कवि छूट गए हैं।
अपने साथ के जो कवि मुझसे छूट गए हैं, उनकी शिकायत जायज़ है। लेकिन नवें दशक की विशेषता पर तो कुछ बिखरे हुए लेखों और संवादों में थोड़ी बहुत चर्चा के अलावा मैंने कुछ नहीं कहा है। यह काम ज़रूरी लगता है। नाम गिनाने से अधिक महत्वपूर्ण किसी दौर की ऐतिहासिक पहचान बनाना है। इस बार डॉक्टरों के कहे अनुसार "हाई रिस्क" ऑपरेशन से लौटकर बचे हुए काम सम्पन्न कर सकूँ, जीवन व्यर्थ न गँवाऊँ, यह शुभकामना दीजिए।
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