'जिसकी जाति का पता नहीं...' सिर्फ़ जाति पूछने का मासूम तरीक़ा नहीं साफ़-साफ़ अपमानित करना है
किसी से भी उसकी जाति पूछना, अगर बिना क़ानूनी या अन्य वैध कारणों के किया जाए, पूरी तरह ग़लत है। जातीय जनगणना अगर होती है तो ज़ाहिर है हर नागरिक की जाति पूछ कर ही होगी। वह एक वैध कारण होगा।
ओबीसी-ईबीसी-अनुसूचित जाति/जनजाति के सही आँकड़ोें के बिना न आरक्षण और अन्य सरकारी सुविधाओं का अनुपात तय किया जा सकता है न वे लाभ दिए जा सकते हैं। बिना सटीक आँकड़ों के न सरकारी नीतियाँ और कल्याण की योजनाएँ-कार्यक्रम बन सकते हैं न यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वे सही लाभार्थियों तक पहुँचें।
लेकिन संसद-विधान सभाओं में, सार्वजनिक जगहों-प्रसंगों में किसी से अपमानजनक, आक्रामक तरीक़े से उसकी जाति पूछना पूरी तरह से ग़लत और घटिया है और सभ्य समाज में ऐसा ही माना जाता है।
"...जिसकी जाति का पता नहीं वह..." सिर्फ़ जाति पूछने का मासूम तरीक़ा नहीं साफ़-साफ़ अपमानित करना है, सामाजिक गाली है। पूरे भारतीय समाज में इसका इस्तेमाल गाली और अपमान-उपहास की तरह ही किया जाता है। यह बात अपने जातिगर्व से भरा हुआ घटिया सवर्ण ही कह सकता है।
यह उन्होंने किसी सभा या दोस्तों के बीच हँसी-मज़ाक में नहीं संसद में कही है। यह असंसदीय, हर तरह से निंदनीय है। इस पर उन्हें चेतावनी नहीं प्रशंसा मिली है यह उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात है।
जब अनुराग ठाकुर ने "देश के ग़द्दारों को..." कह के भीड़ से "गोली मारो सालों को" के नारे लगवाए थे तब बच्चा-बच्चा जानता है कि उनका और भक्तों की भीड़ का निशाना मुसलमान थे। अनुराग तब भी शायद मंत्री थे। इसके बावजूद उनपर न कोई क़ानूनी कार्रवाई हुई न भाजपा के भीतर कोई डाँट या दंड मिला।
प्रज्ञा ठाकुर की गोडसे-स्तुति से प्रधानमंत्री को पीड़ा हुई लेकिन अनुराग ठाकुर के घोर साम्प्रदायिक ज़हरीले नारे से नहीं। क्या इसलिए कि गांधी की प्रशंसा करना, उनकी मूर्तियों को देश-विदेश में प्रणाम करना उनकी अंतरराष्ट्रीय राजनयिक मजबूरी है, उनमें इतना नैतिक-वैचारिक साहस नहीं कि अपने भक्तों के मन में बैठी (और बाक़ायदा बढ़ाई-फैलाई गई) गांधी-घृणा को खुलेआम विरोध करें, निंदा करें और न मानने वालों को दंडित करें।
अगर प्रधानमंत्री सचमुच ह्रदय से गांधी का आदर करते हैं केवल दिखावा नहीं तो यह उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि अपनी पार्टी और भक्तों के मन से गांधी-घृणा निकालें, उसका ईमानदार प्रयास करते दिखें। अन्यथा उनकी गांधी-प्रशंसा शुद्ध आडम्बर ही मानी जाएगी।
अब बात राहुल गांधी और अखिलेश यादव की। दोनों ने अलग-अलग पत्रकारों से उनकी जाति पूछी है, उनका मज़ाक़ उड़ाया है। यह भी पूरी तरह ग़लत है। मैं इसकी निंदा करता हूँ और अपेक्षा करता हूँ कि हर व्यक्ति को करनी चाहिए। यह एक घटिया-बचकाना काम है। जाति आधारित भेदभाव और पूर्वग्रहों को उजागर करने के बेहतर तरीक़े हैं। यह केवल लोगों को अपमानित करना है।
मेरा दृढ़ मत है कि आज नहीं तो कल भारत में जाति जनगणा होगी ही। उससे बचा नहीं जा सकता। जब जाति को सामाजिक पिछड़ेपन का मूल आधार मान लिया गया है तो उसके दायरे में आने वाली जातियों की गिनती तो करनी ही पड़ेगी। बिना गिनती और सही अनुपात के सारी सरकारी योजनाएँ-नीतियाँ बनाई ही नहीं जा सकतीं।
सरकारें इससे बचती रही हैं इसका नतीजा यह है कि केन्द्र और राज्य दोनों स्तरों पर सही आँकड़े नहीं हैं। हर राज्य सरकार अपनी राजनीति के अनुसार मनमाने आयोग-समितियाँ बना कर उन वर्गों की गिनती के आकलन करवाती है जिन्हें वह लाभ पहुँचाना चाहती है। इन आयोगों-समितियों की रिपोर्टों के आँकड़ों की प्रामाणिकता बिना जाँचे ही रह जाती है।
देश चलाने के लिए आँकड़े नींव हैं। बिना उनके बजट नहीं बन सकते, नीतियाँ-योजनाएँ-कार्यक्रम-भविष्य के अनुमान और तैयारी नहीं किए जा सकते। जाति गणना से बचना भी एक बड़ी वजह है कि मोदी सरकार जनगणना नहीं करवा रही है। उसे २०२१ में होना था, कोविड के कारण बढ़ाया गया, इस बीच देश भर में लोकसभा और विधानसभाओं के कई चुनाव हो गए लेकिन जनगणना कब होगी सरकार यह भी नहीं बता रही है।
अब तक अंतरराष्ट्रीय विमर्श में चीन के आँकड़े संदिग्ध माने जाते रहे हैं। अब भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले आँकड़ों को लेकर भी गंभीर प्रश्न और संशय खड़े किए जा रहे हैं। इस विषय पर बहुत से विद्वान चिंताएँ व्यक्त कर चुके हैं। ये विद्वान और संस्थाएँ ऐसे नहीं जिन्हें षड्यंत्रकारी बता कर उपेक्षित किया जा सके।
जनगणना के बाद कई तरह की समस्याएँ उठने वाली हैं लेकिन उनके उपाय ढूँढे जा सकते हैं। लेकिन उन्हें अनन्त काल तक टाला नहीं जा सकता।
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*स्रोत: फेसबुक
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