सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

राम के महल में आग लगाता हनुमान: चर्चित सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर दिलीप मंडल

- प्रमोद रंजन 
चर्चित सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर दिलीप मंडल ने अचानक राजनीतिक पलटी मारी है और राजद-सपा-स्टालिन आदि के खेमे को छोड़ कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए बैटिंग करने लगे हैं। कई लोगों में उनके कथित पतन से दु:ख खीज और गुस्सा है।
लेकिन सवाल यह है कि दिलीप ने ऐसा किया क्यों? पिछले लगभग डेढ़ दशक में उन्होंने जो भी कमाया था, क्यों उसे गंवाने पर तुले हैं?
दिलीप पत्रकार रहे हैं, लेकिन उतने बड़े नहीं, जितना वे अपने समर्थकों को बताते रहे हैं। वे सुरेंद्र प्रताप सिंह की कोर टीम का हिस्सा कभी नहीं रहे। इसी तरह वे राजनेताओं से अपने मामूली परिचय काे भी अपने समर्थकों के बीच ऐसे घुमा-फिरा कर रखते हैं, जैसे वे राजनेता इनके बौद्धिक चेले हों। वे अपनी ऐसी कारगुजारियों को ‘कम्युनिकेशन की मास्टरी’ कहते भी हैं।
कुछ समय पहले तक हालत यह थी कि अगर दिलीप कह दें कि जो बाइडेन और शी जिनपिंग उनके कहने पर एक टेबल पर आ जाएंगे तो उनके दलित-पिछड़े समर्थक यह भी मान लेते।
खैर, मैंने उनकी पिछले लगभग एक महीने की फेसबुक पोस्टस ध्यान से देखी और समझने की कोशिश की कि वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं और आगे क्या करना चाह रहे हैं।
अभी फेसबुक पर उनके तीन लाख से ज्यादा फॉलोअर हैं, और यह समझा जा सकता है कि इनमें से ज्यादातर दलित-पिछड़े हैं। उनकी पोस्ट सिर्फ फेसबुक पर ही नहीं, व्हाट्सएप ग्रुपों में भी सैकड़ो की संख्या में शेयर होती हैं। इसलिए उन पर समय दिया जाना बनता है। वास्तव में वे अलग से अध्ययन के पात्र हैं।
दिलीप स्वयं पीएचडी नहीं कर सके, और अभी दो-चार दिन पहले ही प्रोफेसर विवेक कुमार ने दिलीप पर बिना नाम लिए फेसबुक पर तंज किया था। दरअसल, कोई एक दशक पहले दिलीप ने जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग में पीएचडी हेतु नामांकन लिया था और उनके गाइड विवेक कुमार थे। पीएचडी होना या न होना कतई महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन दिलीप में इतनी सलाहियत नहीं थी कि वे पीएचडी पूरी कर सकें। अंतत: जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग ने उन्हें बाहर कर दिया, या वे स्वयं बाहर हो गए। लेकिन दिलीप तो कम्युनकेशन के मास्टर हैं! वे अपने नाम के आगे ‘प्रोफेसर’ लगाते हैं और उनके फॉलोअर भी यही मानते हैं। ऐसे ही एक और नवयुवक भी हैं। खैर, विवेक कुमार को इससे स्वभाविक तौर पर खीज होती होगी।
दिलीप न लेखक हैं, न चिंतक न सामाजिक कार्यकर्ता। उनको न समाजिक न्याय की मानवीय अवधारणा की समझ है, न इससे कोई आत्मिक लगाव है। वे अनेक बार इस बात को घुमा-फिरा कर स्वीकार भी करते रहे हैं। फेसबुक पर आने के बाद से ही उनका एकमात्र सरोकार जाति रहा है। वे जाति से इतर न कुछ सोचते हैं, न बोलते हैं। दिलीप की इस वैचारिकी को कोई भी उनकी फेसबुक पोस्टस, उनके लेखों और सार्वजनिक मंचों पर की गई टिप्पणियों में देख सकता है। उनकी इस जातिवादी सोच अब तक सहलाते रहे समाजवादियों और वामपंथियों को आज उनपर लांक्षन लगाने का कोई हक नहीं बनता। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू, से कोई फायदा नहीं होने वाला। उन्हें दिलीप की बजाय अपनी सोच बदलने की जरुरत है।
खैर, दिलीप जैसे लोगों को राजनीतिक चश्मे से नहीं समझा सकता, उन्हें समझने के लिए जाति का चश्मा जरूरी है। दिलीप ने इधर अपनी कई पोस्टों में लिखा भी है कि वे “राजनीतिक नहीं, सामाजिक आदमी हैं।” हालांकि, हैं वे एक कैरियरिस्ट, जो जातिवाद इस्तेमाल अपने “पर्सनल ग्रोथ” के लिए करना चाहता है। वे इसे भी खुलेआम स्वीकार करते रहे हैं।
मैं 2006-2007 में पटना से एक पत्रिका जनविकल्प निकाला करता था। दिलीप का एक लेख वहां छपा था। जाति और सामाजिक न्याय जैसे विषय पर वह उनका शुरुआती लेख था। यह हमारे परिचय की शुरुआत थी।
दिसंबर, 2013 में फेसबुक पर प्रमोद रंजन और दिलीप मंडल के बीच चली बहस का अंश... बहस एक वेबसाइट पर ‘दो मैनेजिंग एडिटरों दिलीप मंडल और प्रमोद रंजन की फेसबुकी जंग’ शीर्षक से प्रकाशित  हुई थी:
दिलीप का मानना था कि दलित-पिछड़ों के बीच वैचारिक खेल के लिए काफी “स्पेस” है, क्योंकि सत्ता-केंद्रों के बारे में इनकी जानकारी का स्तर बहुत नीचा है और ये मूर्ख भी हैं। इसलिए हमें यहां ‘खेलना’ चाहिए। जल्दी ही उनकी यह सोच फेसबुक पोस्टों में भी दिखने लगी। इसी बात को लेकर मैंने फेसबुक पर ही अपनी असहमति जताई, उसके बाद हमारी मित्रता का रिश्ता कमजोर हो गया।
आजकल वे ईसाई मिशनरियों के खिलाफ आग उगल रहे हैं, जबकि वे ईसाई मिशनरियों में धर्मांतरण के लिए सबसे बदनाम सुनील सरदार की कोर टीम का हिस्सा रहे हैं। कुछ साल पहले मैंने एक फेसबुक पोस्ट में दलित लड़कियों का विवाह विदेशी ईसाई धर्म प्रचारकों से करवाने का विरोध किया तो वह बर्रे के छत्ते में हाथ डालने जैसा साबित हुआ था। उन्ही बर्रों में एक दिलीप भी थे।
दिलीप ने पिछले डेढ़ दशक में सचेत रूप से यादव और चर्मकार समुदाय के बीच अपनी वैचारिक पैठ बनाने की कोशिश की। ये दोनों ही समुदाय राजनीतिक रूप से मुखर हैं, दिलीप इनके सहारे वैतरणी पार करना चाहते थे।
लेकिन यादव समुदाय के बीच उनकी दाल नहीं गली। सामान्यत: यह समुदाय चाहता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर अन्य लोग उसके पीछे चलें। अति-पिछड़ोंं में शामिल एक वैश्य समुदाय से आने वाले दिलीप मंडल ने वह कोशिश करके भी देख ली। लेकिन वैतरणी फिर भी दूर रही।
तो उन्होंने यादवों को छोड़ दिया। अब वह चर्मकार, अति-पिछड़ा वर्ग और आदिवासी समुदाय को संबोधित कर रहे हैं। यह सोशल मीडिया के रण में उनकी रोचक सोशल इंजीनियरिंग है।
वैसे, हमेशा की तरह उनकी बातों में कोई सार नहीं है, ठीक हमारे प्रधानमंत्री की तरह। सिर्फ थोथे तर्क और भांय-भांय करती तेज आवाज है, जो उन्हें सच्ची लग सकती है, जिनका तर्क और बुद्धि से कोई लेना देना नहीं है।
अब उन्हें लग रहा है कि संघ और भाजपा में दलित-पिछड़ों के बारे में बात करने वाले बुद्धिमान लोग कम हैं, इसलिए उन्हें वहां “स्पेस” मिल जाएगा। वे वहां ‘पर्सनल ग्रोथ’ की अधिक संभावना देख रहे हैं।
दिलीप इन दिनों वे फेसबुक पर मुसलमानों को आरक्षण देने का विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं कि इससे हिंदू दलित-पिछड़ों की हकमारी होगी।
लेकिन “जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी” की बात करने वाली सामाजिक न्याय की धारा में मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने का समर्थन करने में क्या दिक्कत है? उच्चवर्णीय मुसलमान अन्य मुसलमानों से जरूर आगे बढ़े हुए हैं, लेकिन हिंदू सवर्णों की तुलना में सामाजिक रूप से पिछड़े हुए हैं। राज-काज में उनका प्रतिनिधित्व कम है।
वर्तमान में जो कोटा दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए है, मुसलमानों को उससे अलग आरक्षण दिया जाना चाहिए। गरीब सवर्णों के लिए निर्धारित 10 प्रतिशत कोटा मुख्य रूप से हिंदू सवर्णों के पास जा रहा है। उसमें से 5 प्रतिशत मुसलमानों के लिए धर्म के आधार पर निर्धारित कर दिया जाए। धर्म के आधार पर अगर उन्हें दमन झेलना पड़ रहा है तो आरक्षण धर्म के अधार पर भी होना चाहिए।
हमें ऐसी मांग करनी चाहिए।
दिलीप की पिछले दिनों की पोस्टों में जाति के चश्मे में भिगो कर भाजपा की सांप्रदायिकता को समर्थन करने वाले तर्कों के अलावा और कुछ नहीं है। उनके सभी तर्कों का उत्तर दिया जा सकता है। लेकिन उसके लिए समय देने का मन नहीं होता।
बहरहाल, लब्बोलुआब यह है यादवों ने अपना हनुमान खो दिया है और अब वह लंका को सजा रहा है, और राम के महल में आग लगाने की फिराक में है।
---
प्रमोद रंजन की किताबों ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ और ‘बहुजन साहित्येतिहास’ ने बहुजन साहित्य की अवधारणा को सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया, वहीं उनके सम्पादन में प्रकाशित किताब ‘महिषासुर : एक जननायक’ ने वैकल्पिक सांस्कृतिक दृष्टि को एक व्यापक विमर्श का विषय बनाया। अभी हाल ही में राजकमल प्रकाशन समूह से उनकी किताब “बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी” प्रकाशित हुई है

टिप्पणियाँ

ट्रेंडिंग

ગુજરાતમાં ગુલામીનો નવો પ્રકાર: કરાર આધારિત કર્મચારીઓનું શારીરિક, માનસિક, જાતીય શોષણ

- તૃપ્તિ શેઠ  થોડા દિવસો પહેલાં ખંડેરાવ  માર્કેટ, વડોદરા  પર જે કર્મચારીઓ 5 વર્ષથી વધારે કરાર આધારિત શરતો પર કામ કરી રહયાં હતાં તેમનો   ખૂબ મોટા પાયે દેખાવ કર્યો. લગભગ 5000 કર્મચારીઓ હશે . મોટાભાગના કર્મચારીઓ  માસિક  10000-15000 પગાર પર પોતાની ફરજ બજાવી રહયાં છે. સ્વાસ્થ્ય વિભાગના કરાર આધારિત કર્મચારીઓની ફરિયાદ હતી કે કોરોનામાં કોઈ કાયમી કર્મચારી કામ કરવાં તૈયાર ન હતાં એવા પ્રતિકૂળ સંજોગોમાં , જિંદગીને હોડમાં મૂકી કામ કર્યું . પરંતુ ,કોઈ જ લાભ મળ્યો નથી. ABP news પ્રમાણે વર્ષ 2023ના ડેટા પ્રમાણે 61500 કર્મચારીઓ ગુજરાતમાં કરાર આધારિત નોકરી કરે છે. 

स्वच्छ भारत अभियान के 10 वर्ष: उत्तर प्रदेश में बेहतर स्वच्छता के लिए क्राई ने चलाया अभियान

- लेनिन रघुवंशी   चाइल्ड राइट्स एंड यू – क्राई और जनमित्र न्यास स्वच्छता ही सेवा अभियान के उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले भर में स्वच्छता और जागरूकता गतिविधियों की एक श्रृंखला सफलतापूर्वक आयोजित की गई। मध्य सितंबर से अक्टूबर की शुरुआत तक चलने वाली इस पहल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों में बेहतर स्वच्छता और स्वच्छता प्रथाओं को बढ़ावा देना था। अभियान ने विशेष रूप से बच्चों के बीच जल, सफाई एवं स्वच्छता यानि वॉश जागरूकता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया, जो एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण को बढ़ावा देता है।

જો આને જ્યોતિષ કહેવાય તો હું પણ જ્યોતિષી જ છું! અરે, કોઈ પણ વ્યક્તિ જ્યોતિષી બની શકે છે!

- રમેશ સવાણી*  લેખિકા અને એડવોકેટ પ્રતિભા ઠક્કર કહે છે: ‘રાશિભવિષ્ય તો મને કાયમ હાસ્યની કોલમ હોય એવું લાગે !’ અખબારો રાશિભવિષ્ય લોકહિત માટે નહીં પણ પોતાના અખબારનો ફેલાવો વધારવા છાપતા હોય છે. રામ-રાવણ/ કૃષ્ણ-કંસની રાશિ સરખી હતી પણ તેમની વચ્ચે કેટલો ફરક હતો?  

आज़ादी के बाद घुमंतू जातियों का बेड़ा गर्क कर दिया तथाकथित सभ्य सनातनी समाज ने

- डॉ बी के लोधी *  परंपरागत घुमंतू जातियाँ हिदू धर्म और संस्कृति की रक्षक रही हैं. विलियम बूथ टकर, एक ब्रिटिश ICS अधिकारी ने विमुक्त और घुमंतू जातियों के विकास और कल्याण के बहाने, साउथ अफ़्रीका की तर्ज़ पर साल्वेशन आर्मी का गठन किया था । असल उद्देश्य था इन समुदायों को ईसाईयत में परिवर्तित करना ! तमाम प्रलोभनों के बाद भी विमुक्त और घुमंतू जातियों ने ईसाई धर्म नहीं अपनाया । 

मोदी के सत्ता में आने के बाद दंगों के पैटर्न में बदलाव भारतीय समाज व राजनीति के लिए खतरनाक संकेत है

- मनोज अभिज्ञान   नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारतीय राजनीति और समाज में कई बदलाव देखने को मिले हैं. इन बदलावों का प्रभाव केवल राजनीति तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाजिक ढांचे और दंगों के स्वरूप पर भी पड़ा है. जहां एक ओर बड़े पैमाने पर होने वाले दंगे कम हुए हैं, वहीं दूसरी ओर छोटे-छोटे सांप्रदायिक दंगों, मॉब लिंचिंग और राज्य द्वारा समर्थित हिंसा में वृद्धि देखी गई है. सरकार के बुलडोजर द्वारा मकान ध्वस्त करने की घटनाओं ने यह सवाल उठाया है कि जब सत्ता स्वयं ही इस तरह की कार्रवाइयों में संलिप्त हो जाती है, तो बड़े दंगों की क्या आवश्यकता रह जाती है?

મોદીનાં નવા સંકલ્પો... મણિપુર સળતું રહે તે? મહિલા ખેલાડીઓનું યૌન શોષણ કરનારને છાવરે તે?

- રમેશ સવાણી  નફરત કોણ ફેલાવે છે? વિપક્ષ કે ખુદ વડાપ્રધાન? વડાપ્રધાન નરેન્દ્ર મોદી 15/16/17 સપ્ટેમ્બર 2024 દરમિયાન ગુજરાતના પ્રવાસ છે. ત્રણ દિવસમાં મહાત્મા મંદિર ખાતે ગ્લોબલ રિ-ઇન્વેસ્ટ રિન્યુએબલ એનર્જી સમિટ/  અમદાવાદ- ગાંધીનગર મેટ્રો સેવાને લીલી ઝંડી/ સેક્ટર 1થી ગિફ્ટ સિટી સુધી મેટ્રોમાં મુસાફરી/ અમદાવાદના GMDC ગ્રાઉન્ડ ખાતે ભાજપ કાર્યકર સંમેલન અને 8 હજાર કરોડના વિવિધ વિકાસ કામોનું લોકાર્પણ વગેરે કાર્યક્રમમાં હાજર રહ્યા. વડાપ્રધાનનો જન્મદિવસ 17 સપ્ટેમ્બરના રોજ હોવાથી નર્મદા ડેમ પણ છલકાઈ જાય છે !

આવેદન પત્ર - આરોગ્યના ક્ષેત્રે ગુજરાત જીએસડીપીના માત્ર એક ટકા ખર્ચ કરે છે: ઓછામાં ઓછો 5% કરવામાં આવે

- મીનાક્ષી જોષી*  મુખ્યમંત્રીશ્રી, ગુજરાત રાજ્ય, ગાંધીનગર વિષય: આરોગ્યના ક્ષેત્રે ગુજરાત રાજય જીએસડીપીના માત્ર એક ટકા ખર્ચ કરે છે તેમાં વધારો કરીને ઓછામાં ઓછો 5% કરવામાં આવે માનનીયશ્રી,