कुछ दिन पहले एक सुदूर ग्रामीण अंचल (पीरपैंती) से तकरीबन डेढ़-दो घंटे की दूरी पर अवस्थित ऐतिहासिक बौद्ध विक्रमशिला विश्वविद्यालय (के अवशेषों) की परिक्रमा का अवसर मिला।
विक्रमशीला विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्मपाल ने की थी। 8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के अंत तक यह विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शिक्षा केंद्रों में से एक हुआ करता था। कहा जाता है कि यह अपने कुछेक अत्यंत अनूठे नवाचार के चलते उस समय नालंदा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी था। हालांकि, मान्यता यह भी है कि अल्प अवधि के लिए दोनों विश्वविद्यालय के बीच शिक्षण एवं प्रबंधन के क्षेत्रों में घनिष्ठ पारस्परिक संबंध एवं शिक्षकों के आदान-प्रदान का सिलसिला भी रहा था। यह विश्वविद्यालय तंत्रशास्त्र की पढ़ाई के लिए सबसे ज्यादा विख्यात था। इस विषय का एक सबसे विख्यात छात्र अतीसा दीपनकरा था, जो बाद में तिब्बत जाकर बौद्ध हो गया। इसके प्रथम कुलपति ज्ञान अतिस थे।
पूर्व मध्ययुग में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कोई शिक्षा केन्द्र इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था कि सुदूर प्रान्तों के विद्यार्थी जहां विद्या अध्ययन के लिए जायें। इसीलिए यहां छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी। यहां के अध्यापकों की संख्या ही ३००० के लगभग थी। अतः, विद्यार्थियों का उनसे तीन गुना होना तो सर्वथा स्वाभाविक ही था। इस विश्वविद्यालय के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। इन विद्वानों में कुछ प्रसिद्ध नाम हुए हैं - रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र और अभयंकर। दीपंकर नामक विद्वान ने अकेले लगभग २०० ग्रंथों की रचना की थीं। वह इस शिक्षाकेन्द्र के महान प्रतिभाशाली विद्वानों में से एक थे।
जब २५ रूपए की प्रवेश टिकट लेकर हम परिसर में दाखिल हुए तो इस जानकारी से हमें कितना भारी रोमांच हुआ होगा, यह अनुमान लगाने की ही चीज़ है कि विश्वविद्यालय जब अपने पूरे यौवन पर था तो इसके अंदर प्रवेश करना कितना दुष्कर था! अत्यंत बीहड़ वन प्रांतरों तथा जानलेवा अलंघ्य रास्तों को पार करने के बाद जब देश-विदेश से आने वाले छात्र विश्वविद्यालय के सम्मुख पहुंचने में सफल हो भी जाते तो उन्हें परिसर में सरपट प्रवेश की अनुमति नहीं मिल जाती थी। उन्हें द्वार पर नियुक्त विद्वान द्वारपालों द्वारा ली जाने वाली कठिन प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद ही पात्रता मिल पाती थी।
और, अब सैकड़ों साल गुजर जाने के बाद आलम ये है कि हम महज २५ रू० की टिकट कटा कर प्राचीन विश्व के इस एक महानतम बौद्ध विश्वविद्यालय में प्रवेश का अधिकार पा लेते हैं! उल्लेखनीय है कि विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अवशेषों की खुदाई का प्रारंभिक कार्य पटना विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों की टीम ने 1960-69 में संपन्न किया था। बाद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने 1972-82 में बाकी बचे उत्खनन कार्य को पूरा किया।
हमने प्रवेश करते ही यहां भी वहीं चिरपरिचित दृश्य पाया जो प्रायः अधिकांश प्राचीन भग्नावशेषों के अवलोकन में at first sight glance में पाते है - अत्यंत विस्तृत भूभाग में भू लुंठित शिलाखंडों के खंड खंड टुकड़े; अपने प्राचीन गौरव की कथा बांचते मुख्य इमारत का अत्यधिक रोमांच पैदा करता हुआ भव्य ढांचा (skeleton)। परंतु, यहां भरी दुपहिया में हमें भारी राहत देती हुई एक सुखद दृश्यावली भी दिखीं जो अन्यत्र विरल ही होती है! और, वह था खंडहरों की चौहद्दी से ठीक सटे एक घने बागीचा की अवस्थिति जिसमें पेड़ों के मोटे तनों की विचित्र बनावट को देख कर ऐसा भान हो रहा था कि ये कोई सामान्य पेड़ न होकर विश्वविद्यालय जैसी ही प्राचीनता को समेटे आज भी साबुत खड़े हैं! इन दिव्य पेड़ों के संग अपने ग्रुप फोटो तथा सेल्फी लेते हुए हमने धूप की मार से बहुत हद तक राहत पायीं। वहां से निकल कर हम मुख्य आकर्षण अर्थात परिसर के मध्य में अवस्थित क्रॉस के समान आधार विन्यास वाले विशालकाय विक्रमशिला स्तूप जो कि पूजा के निमित्त निर्मित लगता है, की ओर बढ़े। स्तूप की वर्तमान ऊंचाई लगभग 15 मीटर बतायी गयी है। चारों प्रमुख दिशाओं में स्तूप से जुड़े बड़े आकार वाले प्रक्षेपित कक्ष जिनमें कभी बुद्ध की भव्य प्रतिमाएं स्थापित रही होंगी, अब ईंट मिट्टी से ढंक दिये गये हैं। इसके दिवालों पर कहीं कहीं धुएं की लकीरें स्पष्ट रूप से दिखाई जरूर पड़ रही थीं।
इससे इस प्रचलित आख्यान की सत्यता साबित तो हो ही जा रही थी कि इसे भी नालंदा विश्वविद्यालय की तरह भीषण आगजनी से भस्मीभूत किया गया था। आक्रमणकारी और कोई नहीं नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त करने वाला वही बख्तियार खिलजी बताया जा रहा है। यह भी कि इसके विशालकाय पुस्तकालय की असंख्य ग्रंथों में लगी आग नालंदा विश्वविद्यालय की ही तरह महीनों जलती रही थी।
नालंदा विश्वविद्यालय तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय दोनों ही के नष्ट होने के समान आख्यान की प्रमाणिकता पर ऊंगली उठाने की विशेषज्ञता मुझमें रत्ती भर भी नहीं है! मगर, मुझे इसमें एक भारी लोचा अवश्य दिखता है! वह यह कि दोनों विश्वविद्यालय के नष्ट होने के क्रूर घटनाक्रम के बीच कई सालों का गैप तो अवश्य ही रहा होगा? ऐसे में नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट किये जाने की बख्तियार खिलजी की शैतानीयत की खबर विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रशासकों तक पर्याप्त समय पहले तो पहुंच ही जानी चाहिए थी! फिर तो विश्वविद्यालय के प्रशासकों को भारी सतर्कता बरतते हुए समय रहते अपने शिक्षकों-छात्रों तथा अमूल्य ग्रंथों को किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाने की अथवा संपूर्ण परिसर के भीतर ही समुचित सुरक्षा की पक्की व्यवस्था करनी चाहिए थी! मगर, ऐसा हुआ दिखता नहीं है और प्रतीत होता है कि वे नालंदा विश्वविद्यालय की ही तरह खिलजी के हाथों अपने विशालकाय परिसर को भस्मीभूत और स्वयं का कत्लेआम किये जाने की प्रतीक्षा में बैठे रहे थे! इस दृष्टि से देखे तो समान आक्रांता द्वारा दोनों ही विश्वविद्यालय के भीषण विध्वंस को अंजाम देने के इस आख्यान में आपको भी कही भारी लोचा नजर नहीं आ रहा क्या?
निकलते समय हमने परिसर के भीतर नवंबर, 2004 में स्थापित तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की देखरेख में संचालित अत्याधुनिक विक्रमशिला संग्रहालय का भी मुआयना किया जिसमें विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा आसपास की खुदाई में निकली बुद्ध एवं विभिन्न देवी-देवताओं की अपूर्व आकर्षण वाली मूर्तियां, अत्यंत बारीकी से गढ़ी गयीं प्रसाधन सामग्रियां तथा अन्य पुरासामग्री दर्शकों के अवलोकनार्थ रखी गयी हैं।
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